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पगडंडी

badalte rishte
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गौरी पनघट से नहीं, भरती नल से नीर।

छरहरी काया न रही, थुलथुल हुआ शरीर।।

थुलथुल हुआ शरीर, नित्य ही वैद्य बुलावे,

दूध परहेज छोड़,  पिज्जा ही  मंगवावे,

सुनलो कहे अशोक, नहि यह गाँव की छोरी,

आयी दुल्हन गाँव, बन के शहर की गौरी।।

             …

 

पगडंडी दिखती कहाँ, चौतरफा अब रोड।

समयचक्र के साथ ही, बदले कितने मोड़।।

बदले कितने मोड़, बनी डामर की सड़कें,

कृषि चोखा व्यापार,कृषक भी बचे न कड़के,

खड़ी गाँव के द्वार, देखो कृषक की मंडी, 

भूले अब तो लोग, गाँव की वह पगडंडी।।

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