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मीडिया याने टीवी मीडिया, ये मै इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आज अमूमन आम आदमी के घर में अखबार तो एक आता है किन्तु टीवी पर समाचार चेनल दस आते हैं. अखबार तो कल कि बासी खबरों को सिर्फ विस्तार देने का कार्य भर करता है जबकि टीवी लाइव खबरों कि कवरेज देता है. इस मान से आज का सबसे प्रभावी मीडिया समाचार चेनल का मिडिया ही हो गया है. इन समाचार के चेनलों को मै समाचार चेनल से अधिक विज्ञापन चेनल मानता हूँ. यदि समाचार और विज्ञापन के समय कि गणना कि जाए तो यकीन मानिए विज्ञापन के लिए दिया गया समय बाजी ले जाएगा.
पिछले कुछ दिनों से देखने में आ रहा है कि इन चेनलों का कार्य कलाप बहुत कुछ आपातकाल के पहले या उस दौरान के अखबारों के सामान हो गया है. ये पूरी तरह से सरकार के हाथों कि कठपुतली बन चुके हैं. जिस पर आम आदमी बहुत भरोसा करता था ऐसे चेनल भी अब सरकार कि भाषा का प्रयोग करने लगे हैं. इसी का नतीजा था कि अन्ना के आंदोलन के बक्त इन समाचार चेनलों को खरी खरी सुनने को मिली. कुछ लोगों द्वारा अपना गुस्सा जाहिर भी किया गया.
इसके बाद बारी आयी बाबा रामदेब जी के आंदोलन कि इसमें भी साफ़ देखा गया कि मीडिया सरकारी खुफिया एजेंसी का कार्य कर रही है. जब वे इसमें सफल नहीं हो पाये, इस बार बाबा जी ज्यादा सतर्क थे, इसलिए उन्होंने धीरे से बाबा जी कि कवरेज लगभग समाप्त ही कर दी.
अब आज सबेरे से मीडिया सर संघ संचालक मोहन भगवत जी के बयान को सरकारी भाषा में देश के सामने पेश कर रहा था. उसे देख कर लगता है कि शायद देश फिर गुलाम हो गया है या फिर एक बार देश आपातकाल का दंश झेलने वाला है. क्योंकि आज जानेमाने पत्रकार आदनीय आलोक मेहता जी जिस तरह कि भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे उसे देखकर लगा कि शायद स्थितियां ठीक नहीं है.
आज मुंबई में भी आसाम के पीड़ितों द्वारा प्रदर्शन के दौरान अचानक आगजनी कि घटना घटी और सारा आक्रोश पुलिस और मीडिया के वाहनों पर उतरा. क्या यह अचानक था? शायद नहीं! क्योंकि जों पीड़ित विस्थापितों के कैम्प में गुजर कर रहे हैं वहाँ के दयनीय हालात को मीडिया ने कभी भी सरकार के सामने उठाने कि जहमत ही नहीं की. क्या यह मीडिया का काम नहीं था या कि मीडिया का काम सिर्फ आसाम में किसी लड़की के जन्मदिन पर राहगीरों से उसके कपडे उतरवाना ही रह गया है. अब उन्ही का चेनल है और उन्ही का माइक है जैसे चाहें सफाई दें. आज मीडिया आसाम के आंदोलनकारियों के बारे में साफाई देता नजर आया कि रिहायशी कैम्प में रहने वाले मीडिया को क्यों दोषी मान रहे हैं उनकी समस्या उन्हें अपने जनप्रतिनिधियों को बताना चाहिए. वाह रे मीडिया. खुद कि गलती छिपाने के लिए डाल दी अपनी बला जन प्रतिनिधियों के सर. यदि जन प्रतिनिधियों और सरकारी कागजों से काम हो जाता तो फिर आज अन्ना और बाबा को आंदोलन ही क्यों करना पड़ता.मिडीया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यूँ ही नहीं कहा गया है.
मीडिया को अब खबरदार हो जाना चाहिए क्योंकि अब वह इंदिरा जी वाला समय नहीं है. वह सदी बदल गयी है. उस वक्त सिर्फ अखबार ही एक साधन हुआ करता था. किन्तु आज यदि मीडिया वाले यदि यह मान लें कि उनके कहे को ही सच मानना जनता कि मजबूरी है तो वह भुलावे में हैं. क्योंकि आज इन्टरनेट और खासकर सोशल नेट्वर्किंग साइट्स उनसे कहीं तेज हैं. इसलिए मै तो यही कहूँगा मीडिया खबरदार!
(चित्र गूगल से साभार.)
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