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नया सवेरा!

badalte rishte
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                                                                                                           हमारे जीवन में हर दिन कुछ ना कुछ नया घटता है,कुछ अच्छा कुछ बुरा,कुछ याद रह जाता है कुछ हम जल्दी ही भूल जाते हैं.हमारे देश में देशवासियों की सोच आगे बढ़ने में धर्म और संस्कृति को लेकर हमेशा पीछे की ओर चलने की ही रही है.शायद हमारे यहाँ इंसान जन्म से ही बूढा पैदा होता है.क्योंकि किसी बूढ़े को हमेशा उसका अतीत ही याद आता है वह आगे की सोचने से भी डरता है क्योंकि उसे आगे मौत ही दिखाई देती है.मै ये नहीं कहता पीछे मत देखो मगर क्या पीछे देखकर आगे चला जा सकता है.आगे चलने के लिए आगे ही देखना होगा किन्तु जब किसी से आगे चलने की बात की जाए तो वह निराश भाव से यही कहेगा की आगे तो और भी ख़तरा है.
                                                                                 हम सिर्फ यह कहकर नहीं बच सकते की हम विश्व गुरु रहे हैं.यदि हम कह रहे हैं की हम विश्व गुर रहे हैं तो यक़ीनन आज नहीं हैं. क्यों? क्योंकि हमें तो आदत हो गयी है पीछे ही देखने की आगे क्या हमारे पास कोई सोच है की हम पुनः विश्व गुरु बन सकें. इसी बूढी सोच के कारण हम कहीं से कुछ मिले तो उसे ग्रहण करने में भी सोच में पड़ जाते हैं. आज हमारे पास दुनिया को देने के लिए क्या है? सिर्फ और सिर्फ बढ़ी हुई आबादी या गरीबी और भुखमरी. कुछ देश तो दुनिया के ऐसे हैं जिन्होंने जाना ही नहीं है की गरीबी या भुखमरी जैसी कोई चीज होती है. किन्तु हम जब भी भविष्य की ओर देखते हैं तो सिर्फ गरीबी और भुखमरी ही देखते हैं.हमारी सोच यही रहती है की भगवान् जो करेगा अच्छा ही करेगा.जबकि होना ये चाहिए की हम जो कर रहे हैं उसको इश्वर का आशीष प्राप्त होगा.
हम अपनी संस्कृति को बचाना चाहते हैं,तो क्या दूसरों की संस्कृति का उपहास करके हम अपनी संस्कृति बचा लेंगे? छोटी छोटी बातों पे विवाद खडा कर देते हैं क्या इससे संस्कृति बच जायेगी.यदि हमें अपनी संस्कृति बचाना है तो दूसरों की संस्कृति का भी सम्मान करना होगा. हम अपनी संस्कृति को लेकर अकड़े हुए हैं इसलिए हमें सत्यता भी नजर नहीं आती या हम उससे नजरें चुराते हैं.बड़ी बड़ी बातें करने लगते हैं.तो इससे क्या सत्य बदल जाएगा.वक्त कभी रुकता नहीं है. हमें ही वक्त के साथ कदम मिलाना पड़ता है.यदि हम पुराने के ही चंगुल में उलझे रहे तो नए को सिर्फ कोसते ही रहेंगे कर कुछ नहीं पायेंगे.मगर चलना तो उसी के साथ है.अब हम पर है की हम नए बदलाव को किस तरह लेते हैं. हमें अच्छा लगता है जब कोई बिल्ली घबराहट में भागती आये किन्तु हमारा रास्ता ना काटने पाए और व्याकुल हो जाते हैं जब स्वर्ण भी राह चलते पडा मिल जाए.
                                                                                      हमें अतीत को अच्छा मानने की प्रवृति को बदलना ही होगा. इस बात पर विश्वास करना होगा की हर नया सवेरा अच्छा ही होगा क्योंकि उस दिन को संवारने का जिम्मा हमारा ही है.
                                                                                      अंत में दो दिन पश्चात आ रहे वेलेंटाइन डे के लिए मेरी अभिव्यक्तियाँ. हम प्रेम के आध्यातिमिक स्वरुप को भौतिक स्वरुप से अलग नहीं कर सकते.हम मन से प्रेम करते हैं तो तन से भी प्रेम करते हैं.तभी प्रेम अपनी उंचाइयां पाता है हम दोनों को पृथक पृथक नहीं कर सकते. हमें दोनों को एक साथ मजूर करना ही होता है वरना हम दुनिया में खड़े ही ना होते.

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