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एक अधूरी ख्वाहिश.

badalte rishte
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आज सबेरे जब मै घूमने निकला तो दशहरा मैदान में जहां हर वर्ष संभाग के गणतंत्र दिवस का समारोह होता है. वहां स्कूली बच्चे और पुलिस एक साथ कदमताल कर गणतंत्र दिवस की परेड की तैयारी में लगे थे.उनको देख कर अनायास ही मुझे सन १९७२ के बसंत की याद आ गयी. जब भारत पकिस्तान युद्ध के बाद बँगला देश आजाद हुआ था. मेरा भी मन हुआ था की मै भी सेना में भर्ती हो जाऊं. हर दिन अपने सिने को घर में रखे सिलाई कार्य में आने वाले इंची टेप से नापता अपनी ऊंचाई नापता किन्तु मेरी उंचाई कभी भी सेना में भर्ती के लिए आवश्यक उंचाई के बराबर नहीं हो पायी.बहुत अफ़सोस होता था, मैंने कई यत्न भी किये कभी लटक कर तो कभी तैराकी के सहारे किन्तु बात नहीं बनी.वक्त बीतता गया और कुछ वर्षों बाद मै नौकरी के लिए जबलपुर आ गया. यहाँ सेना के सिग्नल कोर का मुख्यालय है. यहाँ भी जब मै सैनिकों को वर्दी में कंधे पर बन्दुक लटकाए देखता तो फिर मुझे लगता की मै भी काश सेना में गया होता. फिर एक दिन एक मित्र ने कहा चलो हम सेना भर्ती कार्यालय जा कर पता करते हैं की क्या वे हमें भर्ती करेंगे? फिर हम दोनों भर्ती कार्यालय पहुँच गए मगर जैसे ही उन्होंने हमारे प्रमाण-पत्रों से हमारे उज्जैन का होने की जानकारी ली वैसे ही उन्होंने हमें यह कह कर वापस कर दिया की आप की भर्ती इस कार्यालय से नहीं हो सकती आपको अपने शहर के नजदीक के महू कार्यालय में उपस्थित होना पडेगा. चूँकि हम जबलपुर में नौकरी कर ही रहे थे तो फिर कभी महू जाने का अवसर भी नहीं आया और फिर आज का वक्त है. बस ये ख्वाहिश ही रह गयी.
देश की आन बान और शान है सैनिक,
देश की सरहदों की जान है सैनिक,
दुश्मन की ललकार पे तलवार है सैनिक,
देना पड़े गर जान भी तो गम नहीं,
देश का वफादार दिलदार है सैनिक,

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