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ताली दोनों हाथ से बजती है: (मराठी बनाम उत्तर भारतीय – राजनीतिक दुराग्रह या हक़ की लडाई )जागरण जंक्शन फोरम

badalte rishte
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मराठी बनाम उत्तर भारतीय जेजे ने यह नाम तो दिया है किन्तु सत्य देखा जाए तो ऐसा है नहीं. हाँ राजनीति भरपूर है और फिर कुछ हक़ कि लड़ाई भी या हम ये ही कहें कि हक़ कि आड़ में राजनीति और राजनीति भी क्या गुंडा निति.
मुंबई देश का बहुत पुराना व्यापार केंद्र रहा है यहाँ काफी कपड़ा मिलें थी और वहां आज कि तरह हर काम के लिए मशीने उपलब्ध नहीं थीं तब कई काम करने के लिए बलिष्ठ लोगों कि जरूरत रहा करती थी.सस्ते दाम पर कम पढ़े लिखे और बलिष्ठ लोग आसानी से उत्तर भारत के बिहार और उत्तर प्रदेश से मिल जाते थे. कपड़ा मिलें बंद होने लगी वहां बसे उत्तर भारतीयों ने फिर दूध देरी और रिक्शा चलाने के काम में रोजगार तलाशा और सफल रहे. सिर्फ मानसिकता का ही अंतर था जिस काम को करने में मुंबई वालों ने हिचक दिखाए उसे उत्तर भारतियों ने सहर्ष स्वीकार किया. तब शायद मुंबई में रोजगार मिलना बहुत मुश्किल भी ना था सो कही मुम्बईवासी अन्य काम करने लगे और कुछ खेती के काम में जुट गए.
आज भी पढ़े लिखे लोगों को मुंबई में कोई तकलीफ नहीं है क्योंकि वे लोग तो आसानी से नौकरी पा जाते हैं और मुंबई ही नहीं वे तो मुंबई के बाहर भी नौकरी कर रहे हैं. उन्हें इन उत्तर भारतियों से परेशानी भी नहीं है. आज भी उनका विशवास इन पर कायम है. किन्तु समस्या अनपढ़ों या कम पढ़े लिखों कि है.जो मुंबई ही क्या कहीं भी रहें नौकरी पाने में सभी जगह असफल ही रहेंगे. उनके लिए टैक्सी चलाने जैसे काम ही शेष हैं.
यहीं से शुरुआत होती है ठाकरेवाद की. बाल ठाकरे जिन्होंने पहले हिन्दू संगठन बनाया “शिव सेना” और हिन्दू मुस्लिम के बीच देश में नफरत पैदा की.इस संगठन ने देश हित के लिए क्या किया? कुछ भी नहीं.हाँ हमारी बची खुची एकता में फुट डाली,नवयुवकों को हिंसक और अमर्यादित बनाया. अब जब इनको लगने लगा की हमारी करनी का फल अब हमको मिल सकता है तो इन्होने अपने ही घर में शरण ले ली. इनको ये भी मालुम पड़ गया की हमारी पूछ परख यहीं पर है इससे आगे गए तो हमारी पोल खुल जायेगी और फिर हमारी स्थिति धोबी के कुत्ते के सामान हो जायेगी. इसलिए अब ये दरवाजे के अन्दर से ही ……
घर में रहकर राज भी यह राज जान चुके थे कि जाति कि तरह ही प्रदेश के नाम पर भी खेल हो सकता है. कम समय में अधिक शोहरत पाने के उद्देश्य से इन्होने भी उसी घ्रणित तरीके को अपनाया. उत्तर भारत के गरीब लोगों के साथ मारपीट की जब इनको उत्तर भारतीयों से नफरत थी तो क्यों नहीं इन्होने उद्योग धंधे में लगे और फ़िल्मी दुनिया के मशहूर नामो से मारपीट की क्यों नहीं उन्हें मुंबई छोड़ने के लिए कहा? यही राजनीति है.
क्योंकि ये जानते हैं की इनके साथ दंगो में कोई पढालिखा नौजवान नहीं आयेगा आयेंगे तो बस आवारा किस्म के गुंडा तत्व, और आये भी. मगर क्या अब मुंबई में उत्तर भारतीय नहीं हैं? क्या मराठी भाषियों के हित की चिंता ख़त्म हो गयी है.?
कुछ भी नहीं बदला सिर्फ बेचारे कुछ गरीब उत्तर भारतीय अपने आत्म सम्मान से रोजी रोटी की खातिर इनकी राजनितिक ऊँचाइयों के लिए सीढ़ी बन गए. और ये सिर्फ आज नहीं है, जब जब इनको अपना राजनितिक अस्तित्व ख़त्म होता नजर आयेगा ये पुनंह यही हथकंडा आजमाएंगे.
इसमे हक़ जैसी कोई बात नहीं है. यदि हक़ की ही बात करते हैं तो फिर पुरे देश के मराठी भाषी लोगों के लिए करो. इन मुट्ठीभर मुंबई के मराठियों के लिए पुरे देश के मराठी भाषियों को मुश्किल में डालने वाले इन आतंकवादियों ने कभी मुंबई के बाहर के बाहर रहने वाले मराठी भाषियों की परेशानी के बारे में कुछ सोचा? कभी नहीं.
और अंत में मै यही कह सकता हूँ की देश में कोई ऐसा क़ानून नहीं है की किसी को किसी भी प्रांत में रोजगार करने से रोके और ना ही कोई क़ानून होना चाहिए. अपराधी प्रव्रत्ति वालों को जेल तक पहुंचाना वहां की प्रदेश सरकार का काम है, यदि वह किसी से डरकर यह नहीं कर सकती तो वह नपुंसक सरकार उस गद्दी की हकदार नहीं है.
मै ये कहने से भी नहीं चुकुंगा की मुंबई में रह रहे उत्तर भारतीयों ने अपने बढ़ते कारोबार के साथ अपने ही कई रिश्तेदारों को वहां बुलाया किन्तु वे उन्हें वहां की संस्कृति की शिक्षा नहीं दे पाए नतीजा ये हुआ की नए आये युवकों ने वहां की संस्कृति को भी धूमिल करने की चेष्टा की और इस कारण उनको वहां के आम मुम्बईकर का कोपभाजन बनना पडा.उन्हें अब भी वहां की संस्कृति के अनुरूप ही रहना चाहिए. मेरा आशय मराठी भाषा आना ही चाहिए से नहीं है.इसके लिए बरसों से रह रहे उत्तर भारतीय उनकी मदत कर सकते हैं.

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